"शादी के बाद राहुल की ज़िंदगी जैसे उलझती ही चली गई — पत्नी की उम्मीदें, ससुराल वालों का ताना, और समाज का बोझा, सब कुछ एक-एक करके उसके भीतर की शांति छीनते गए। 'मर्द हो, सब सह लो' — ये सुनते-सुनते वो अंदर से टूट गया। एक रात जब कमरे में सब सो रहे थे, राहुल बालकनी में खड़ा था, खामोशी से अपने आँसू पीते हुए। पर ठीक उसी पल, उसका फोन बजा — कॉलेज का पुराना दोस्त था, जो मनोचिकित्सक बन चुका था। कुछ शब्दों ने राहुल को बचा लिया। उस रात राहुल को अहसास हुआ — मर्द भी रो सकते हैं, कह सकते हैं कि उन्हें तकलीफ़ है... और सबसे ज़रूरी बात — मदद माँग सकते हैं।